कुछ लोग व्यवस्था के रस्सी से बंधी नाव खें रहें है
संपूर्ण विकास का ज़ायका ले रहे है|
लाख खेंते है, नाव हिलती नहीं,
एक दुसरे को गालियाँ दे रहे है|
जब मैंने उनको कहा की रस्सी को काटो;
पहले रस्सी को काटो फिर नाव आगे बढाओ
वो तभी गुस्सा होके बोले की,
"बेवकूफ क्या तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा है?
काम के समय ऐसी बातों को उठाते हो?
आना है तो आओ, तुम भी पतवार चलाओ!
तुम्हारे जैसे सिरफिरे ही काम के समय ऐसी बातों को उठाते है,
जानते नहीं रस्सी काटने से नाव बहनें का डर है?"
"रही रस्सी की बात, वोह एक न एक दिन टूट जायेगी
नहीं तो हम व्यवस्था से इतनी बड़ी रस्सी माँगेंगे,
की बंधी होने के बावजूद, नाव को मंजिल-ए-मक्दूत ले जाएंगे,
आना है तो आओ, तुम भी पतवार चलाओ"
सचमुच, मैं उनकी बातों को समझता नहीं
और कूद के तैरनें लगता हूँ!
आवाजें आती है "अच्छा हुआ, अब काम के समय कोई सवालों को नहीं उठाएगा,
लेकिन इसके बाल बच्चों का क्या होगा?"
हर लहर मुझे थपडें मारती है,
हर लहर मुझे डुबाना चाहती है,
लेकिन...
लेकिन हर लहर मुझे तैरना सिखाती है!
मैं मुडके देखता हूँ, तो दूर किनारे पर...
कुछ लोग व्यवस्था के रस्सी से बंधी नाव खें रहें है
संपूर्ण विकास का जायका ले रहे है|
लाख खेंते है, नाव हिलती नहीं,
एक दुसरे को गालियाँ दे रहे है|
-श्याम बहाद्दुर नम्र
Monday, August 25, 2008
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3 comments:
Dear Priyadarshan,
The name of the poet is missing. Please add the name of the poet at the end "Shyam Bahadur Namra".
k.. thanks
have added the name
-priyadarshan
thanks pd!
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