मेरे सपनो को जानने का हक रे
क्यों सदियों से टूट रही है
इनको सजने का नाम नहीं
मेरे हाथों को जानने का हक रे
क्यों बरसों से खली पड़ी हैं
इन्हें आज भी ककम नहीं है
मेरी पैरों को यह जानने का हक रे
क्यों गाँव गाँव चलना पड़ा रे
क्यों बस की निशान नहीं
मीर भूक को जानने का हक रे
क्यों गोदामों में सड़ते हैं दाने
मुझे मुट्ठी भर दाना नहीं
मेरी बूढी माँ को जानने का हक रे
क्यों गोली नहीं सुई दवाखाने
पट्टी टाकने का सामान नहीं
मेरे खेतों को यह जानने का हक रे
क्यों बाँध बने हैं बड़े बड़े
तो भी फसल में जान नहीं
मेरे जंगलों को यह जानने का हक रे
कहाँ डालियाँ वोह पत्ते टेल मिटटी
क्यों झरनों का नाम नहीं
मेरे नदियों को यह जानने का हक रे
क्यों ज़हर मिलाये कारखाने
जैसे नदियों में जान नहीं
मेरे गाँव को यह जानने का हक रे
क्यों बिजली न सदके न पानी
खुली राशन की दुकान नहीं
मेरे वोटों को यहे जानने का हक रे
क्यों एक दिन बड़े बड़े वाडे
फीर पांच साल काम नहीं
मेरे राम को यह जानने का हक रे
रहमान को यह जानने का हक रे
क्यों खून बह रहे सड़कों में
क्या सब इन्सान नहीं
मरी ज़िन्दगी को यह जानने का हक रे
अब हक के बिना भी क्या जीना
यह जीने के समान नहीं
Friday, September 24, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment